Tuesday, July 29, 2025

एक अधूरी कहानी

अजीत  बाबु एक साधासीधा जीवन व्यतीत करनेवाले आम नागरिक थे।  घर संसार भरापूरा  ही था  पर मन में शांति न थी। बीवी नौकरीशुदा थी , बच्चे नामी प्राइवेट स्कूल में पढ़ते थे। आमदनी अच्छी थी इसलिए खर्चों से परहेज़ न था।  पर जैसा कि मैंने पहले कहा अजीत बाबु दिली तौर  पे खुश न थे। 

उनके लिए शादी एक समझौता ही था । ऐसा समझौता जो उनके माता पिता ने उनको करने पर मजबूर किया था। अगर होती उनकी शादी कुसुम से तो जीवन के मायने ही बदल जाते। फिर तो रोज़ शामो सहर सतरंगी रंगों से रंग जाते। अब क्या है?  सुबह ऑफिस जाना शाम को ऑफिस से घर आना, गृहस्थी के नाना प्रकार के खर्चों का ब्योरा रखना, खर्चे कम क्यों नहीं हो पा रहे हैं उसपे सुशीला से बहस करना और फिर खाना खाकर सो जाना। हां, उनकी पत्नी का नाम सुशीला ही थी । पढ़ी लिखी, सुघड़, समझदार और सहनशील । मां ने यही सारे गुणों को देखते हुए अपने "नासमझ" बेटे के लिए उसे चुना था। चुनाव सांसारिक अनुभवों पर आधारित था प्यार मोहब्बत के दावों पर नहीं। 

सुशीला ने वैवाहिक जीवन के प्रारंभिक कुछ महीनों में ही भांप लिया था कि उनके पति का मन जीतना उसके लिए संभव नहीं है। फिर भी गृहस्थी के सारे कर्तव्यों को बिना शिकायत ही उसने बड़ी सूझबूझ से निभाने का बीड़ा उठा लिया था। बच्चों को पढ़ाना, घर संभालना, खाना बनाना और एक समय अजीत बाबू के नौकरी छूट जाने पर घर के पास एक स्कूल में वरिष्ठ शिक्षिका का पदभार संभाल लेना उसके निजी निर्णोयों में से कई थे। अपने पति से पूछना आवश्यक नहीं , ऐसा न था, पर सुशीला जानती थी अजीत के शख्सियत में ठोस निर्णय लेने की क्षमता ना के बराबर ही था। इसलिए सुशीला, जो भी घर और बच्चों के खुशी के लिए ठीक समझती, अपने आप ही सब कर लेती। अजीत बाबू को कभी कभी महीनों बाद पता चलता कि घर के रुटीन में कोई परिवर्तन हुआ है। वे सोचते कुसुम होती तो मुझको खुद ही बताती पर ये तो सुशीला है। ये क्यों मुझे बताएंगी? सुशीला तो इस घर की एकछत्र मालकिन है। अजीत बाबू तो सिर्फ पैसे कमाने की मशीन बन कर रह गए है। इत्यादि...

मुद्दे की बात यह थी कि सुशीला और अजीत संसार नामक गाड़ी के दो पहिए जरूर थे पर गाड़ी फिर भी ज़िंदगी के दो समांतराल ट्रैकों पर चल रही थी। गाड़ी उलट नहीं रही थी इसका श्रेय अजीत बाबू अपने ए टी एम कार्ड को देते थे । सुशीला की इसमें कोई  बौद्धिक, वित्तीय या भावनात्मक सहयोग उनको दिखाई नहीं पड़ता था। किसी भी सांसारिक समस्या का समाधान या निष्पादन "अगर कुसुम होती तो ...." से शुरू होकर वही खत्म हो जाता था। 

****

अजीत और कुसुम किसी ज़माने में पड़ोसी हुआ करते थे। धीरे धीरे उनके विशुद्ध दोस्ती में प्यार का समायोजन हुआ। कुसुम खूबसूरत होने के साथ साथ बातें भी बहुत मिठी मिठी करती थीं। उसे अजीत से हमदर्दी था। उसकी माली हालत कुसुम के पारिवारिक समृद्धियों से कम था। अजीत के पिता नौकरी पेशा थे और कुसुम के पिता सुलझे हुए व्यापारी। 

कुसुम ने अजीत को, हर हालात में कंधे से कंधा मिलाकर चलने का, आश्वासन दिया था। अजीत दृढ़ निश्चित था कि कुसुम ऐसा ही करेगी। परन्तु प्यार में बह जाने के बावजूद अजीत अपने पिता के समक्ष कभी यह कह न पाया कि कुसुम से वह विवाह करना चाहता है। कुसुम ने भी इस बात पर कभी जोर नहीं दिया। दूर क्षितिज पर विवाह का तारा टिमटिमाता रहा और वे दोनों उस तारे को देख देख फूले न समाते। पर किसी ने भी इस योजना को कार्यान्वित करने की पहल नहीं की।

और एकदिन कुसुम की शादी हो गई। अजीत के माताश्री को उसकी मानसिक स्थिति तब ज्ञात हुई जब वह सी ए की अंतिम परीक्षा पास न कर सका। 

दो साल बाद अजीत के सी ए बनते ही उन्होंने सुशीला का चयन कर सामाजिक स्वीकृति के साथ घर ले आए।

प्रेम का झिलमिल तारा बुझ सा गया। पर क्षितिज पर उसकी मृत रोशनी की एक रेखा , पता नहीं कैसे, समय के उतार चढ़ाव को अमान्य कर, जीवित रही। वो रेखा घर जलाने के काबिल न थी। पर वह अजीत के मन को प्रतारित करता रहा।

और सुशीला, सब कुछ जानते हुए भी कभी सवाल जवाब में न उलझ, अपने बच्चों के भाग्यों को संवारने में जुटी रही।

***

फिर एकदीन अकस्मात , जैसे कुसुम अजीत बाबु के जीवन से निष्कासित हुई थी वैसे ही दोबारा आ धमकी। धमाका ही था मानिए। धमाके कहके नहीं फूटते। अचानक विस्फोट तहस नहस कर अपनी बंजर निशानियां छोड़ जाती है। पुनर्वार उसकी आने की कल्पना कर मनुष्य सहम जाता है पर उसे बुलाने की तजवीज नहीं करता। 

अजीत बाबु ऑफिस के किसी कलिग के शादी पे एक शाम के लिए शहर के बाहर जाने पर विवश हो गए। वैसे तो उन्हें घर से ऑफिस और ऑफिस से घर के अलावा कहीं और जाने का मन नहीं करता था पर कलिग के साथ अच्छे संबंध थे तो मना न कर पाए। ढाई सो किमी की दूरी अधिक तो नहीं पर सुशीला के हाथ की चाय न जाने क्यों बहुत याद आने लगी। 

बहरहाल शादी के मंडप पर पहुंच अपने बाकी कलिगों को ढूंढते ढूंढते नजर एक जगह जाकर गढ़ गई। एक अकेली औरत भीड़ से थोड़ी दूर एक कुर्सी पर बैठी किन्हीं सोचों में गुम सी लग रहीं थीं। उसकी शक्ल काफी जानी पहचानी सी  थी। कीमती सारी, गहनों और मेक अप से लदी हुई। वैसे तो मक अप की आवश्यकता नहीं थी क्योंकि उसकी व्यक्तित्व में एक अलग ही बात थी। गंभीरता के साथ साथ एक अजब उदासी। जैसे की मुसाफिर रास्ता भूल कहीं और भटक गया हो। पता तो मालूम था पर याद न आ रहा हो। एक घबड़ाहट, एक बेचैनी, एक गलती का अहसास जैसे कचोट रहा हो। 

अजीत बाबु को चंद सेकंड लगे पहचानने में। पहले शक सा हुआ  ये वही तो नहीं? फिर एक टक देखने के बाद यकीन हुआ हां यह वही तो है। कुसुम... हमारी कुसुम...मेरी कुसुम। अजीत बाबु भूल गए कि जिस कुसुम को वे जानते थे , जिस कुसुम के अनुराग में वे मुग्ध हो जग परिवार को त्यागने का एक समय निर्णय ले चुके थे उस कुसुम और इस अधेड़ उम्र की महिला में वर्षों का फासला था। 

अजीत बाबु आगे बढ़े। कुर्सी तक पहुंच कर थोड़ा आगे झुक कर नम्रता से संबोधित किया, "कुसुम! तुम कुसुम ही हो न? मुझे पहचाना?" वह महिला चौंक कर अजीत बाबु की तरफ देख कर बोली, "आप मुझे जानते हैं? मैंने आपको पहचाना नहीं" । अजीत बाबु झेंप गए। क्या एक ही नाम और शक्ल के दो शख्स हो सकते हैं? क्या उन्होंने हड़बड़ी में कोई गलती कर डाली? क्या ये वो कुसुम नहीं? इन प्रश्नों के उत्तर ढूंढते हुए अजीत बाबु को ये ख्याल ही नहीं आया कि इतने सालों बाद उनकी प्राक्तन प्रेमिका उसे भुला सकती है या उसे न पहचानने का ढोंग कर सकती है।

अजीत बाबु कुसुम को याद दिलाने ही वाले थे कि एक हंसमुख व्यक्ति उनकी ओर बढ़े और पूछा, " क्या आप मेरी पत्नी से बात कर रहे हैं? क्या आप उनके पूर्व परिचित हैं? अजीत बाबु फिर झेंप गए। उन्होंने कैसे भुला दिया कि कुसुम शादी शुदा है। उनकी इस तरह एक शादी शुदा स्त्री से आगे बढ़ कर बात नहीं करनी चाहिए थी। पर उसके तुरंत बाद ही उनको ख्याल आया कि वे तो कुसुम को शादी से पहले से ही जानते थे। तो इसमें क्या ही हर्ज है कि उन्होंने किसी पुराने मित्र से वार्तालाप करने की पहल की । हां, प्रेमिका से पहले कुसुम उनकी दोस्त ही तो थी। सबसे अच्छी दोस्त।

अजीत बाबु ने सर हिलाकर हामी भरी। वह अपरिचित, हंसमुख व्यक्ति थोड़े झिझके । फिर बड़ी क्षमापूर्ण स्वर में बोले, " बुरा मत मानिएगा। मेरी पत्नी को अल्जाइमर है यानी भूलने की बीमारी। उन्हें आप शायद याद न हो"।

अजीत बाबु सकपकाकर बोले, "अल्जाइमर?" वह तो वृद्धावस्था के लक्षण है"। 

कुसुम के पति ने अजीत बाबु की बात को काटते हुए कहा, " नहीं ये एक गलतफहमी है। अल्जाइमर किसी भी उम्र में हो सकती है। कुसुम को तो शादी के कुछ साल बाद ही हो गया था। पर आप कुसुम को कैसे जानते हैं?"

अजीत बाबु उत्तर न दे सके। क्या वह अपराधबोध था या अचानक एक बड़ा झटका लगने का ट्रॉमा? अजीत बाबु को समझ न आया। उनके आंखों के सामने उनके कॉलेज के दिन, कुसुम से परिचय, उससे दोस्ती फिर प्रथम प्रणय निवेदन, पहले पहले छुप छुप के मिलना फिर साहस संचित होने के बाद किसी की परवाह न करते हुए एक दूसरे से घुलना सब आंखों के सामने सिनेमा के दृश्यों की तरह एक के बाद एक तैरने लगा। 

अजीत बाबु ज्यों त्यों शादी के मंडप से बिना कुछ खाए, बिना अपने कलिगों से मिले, बिना नव दंपति को मुबारकबाद दिए  किसी तरह निकल आए। रात हो चुकी थी। रास्ते सुनसान हो गए थे। चलते चलते अजीत बाबु कहां निकल आए थे उन्हें भी नहीं पता था। केवल मन के अंगने में एक मुरझाई हुई फूलों की क्यारी सुगंधहीन, रंगहीन दिखाई पड़ रही थी। 

और तभी सुशीला की मुखमंडल अजीत बाबु के आंखों के आगे चमकने लगी। भूख का एहसास होते ही सुशीला के हाथ की बनाई हुई रोटी , सब्जी और अचार अनायास ही मुंह में पानी का संचार करने लगी। शादी पे जाना है सुनके सुशीला ने अपने हाथों से अजीत बाबु के पहने हुए कपड़े प्रेस कर दिए थे। उसकी हाथों के स्पर्श अजीत बाबु मानो कपास के बुनाई में अनुभव करने लगे। इतने वर्षों बाद अजीत बाबु को अनुभव हुआ कि सुशीला ने बड़ी ही निपुणता से उनकी गृहस्थी संभाली है, बच्चों की लिखाई पढ़ाई में मदद, अनुशासन और देखभाल की है , सांस ससुर की सेवा में कोई कमी नहीं रखी है और अजीत बाबु के कंधे से कंधा मिलाकर बुरे दिनों में नौकरी कर संसार धर्म निभाया है। 

आज उस जनमानवहिन सड़क पर खड़े खड़े अजीत बाबु की आँखें सुशीला और उसकी दायित्वबोध , सहनशीलता और बुद्धिमत्ता की प्रशंसा से भर आई। कभी कभी हीरा हाथ के पास होते हुए भी उसका मूल्यांकन करने में इंसान चूक जाता है। अजीत बाबु खुद को कोस ही रहे थे कि पीछे से क्रिंग क्रिंग की आवाज आई। अजीत बाबु ने मुड़ कर देखा तो एक ऑटो दृश्यमान हुआ। हाथ बढ़ाकर ऑटो को रोकते हुए जोर से वे बोले, "स्टेशन"।

***

अजीत बाबु की अधूरी प्रेम कहानी यही समाप्त होती है परंतु पाठक पाठिकाओं के लिए कुछ मूल प्रश्न भी छोड़ जाती है। क्या इस घटना के पश्चात अजीत बाबु अपनी रोजमर्रा के जीवन में संतुष्टि ढूंढ पाएंगे ? क्या उनको कुसुम की याद अब भी सताएगी? और जब जब कुसुम याद आएगी क्या वे सुशीला के साथ खर्चों का ब्यौरों को लेकर तर्क वितर्क में लिप्त होंगे ?

मनुष्य एक अद्भुत जीव है। उसे जो जीवन में मिलता है उसे वह अपना अधिकार समझ झटपट दबोच लेता है और जो नहीं मिलता है उसकी प्रतिक्षा में उम्र भर अफसोस करता रहता है। क्या अजीत बाबु इन वास्तविकताओं और इंसानी कमजोरियों के ऊपर उठ पाएंगे? आपको क्या लगता है?






Saturday, June 28, 2025

পথিক! তুমি কি পথ হারাইয়াছো?

জীবনে প্রতি নিয়ত অনেক লোকের সংস্পর্শে আসা এবং তাঁদের আমাদের ব্যক্তিত্বের ও জীবন যাত্রার উপর নানা বিধ প্রভাব - এই অনুভূতি, এই আদান প্রদান, এই অভিজ্ঞতাগুলিই জীবন যাত্রার পাথেয় হয়ে দাঁড়ায়। এই সহ যাত্রীরা সব সময় আপনজনের তালিকা ভুক্ত নাও হতে পারে। অনেক এমন লোকের সাহচর্য পাওয়া যায় যারা প্রাথমিক ভাবে সম্পূর্ণ রূপে অপরিচিত কিন্তু তাঁদের ক্রমাগত সান্নিধ্য  তাঁদের আন্তরিক ভাবে পরিচিত  ও আপন করে তোলে। তাঁরা কখনো বন্ধু কখনো বরেণ্য কখনো অযাচিত ভাবে উপকার করে আমাদের ঋণগ্রস্ত করে রাখে সারাটা জীবন।

আবার কিছু কিছু এমন লোক আছে যারা আমাদের জীবনে কিয়ৎক্ষণ দেখা দেন আর তারপর কোথায় মিলিয়ে জান। তার মানে এই নয় যে তাঁরা স্মৃতি থেকে অবলুপ্ত হয়ে যান। বরঞ্চ এর উল্টোটাই হয় - তাঁরা বার বার মনের দরজা দিয়ে উঁকি মারেন। ভাবি এঁদের সঙ্গে যদি আরো ঘনিষ্ট পরিচয় হত তাহলে জীবনটা কি অন্য খাতে বইত?

তিনটি উদাহরণ দিই।

কলকাতায় কর্মসূত্রে কিছুকাল থাকাকালীন প্রায়শই দক্ষিণেশ্বরে যাওয়ার সুযোগ পেতাম। মায়ের মন্দিরের সামনেই নাট মন্দিরে সন্ধ্যাকালে গানের আসর বসত। ভক্তিরসে সিক্ত সেই সব সভায় সম্মিলিত হওয়া বিশেষ ভাগ্যের ব্যাপার মনে করতাম। এইরকমই একটি শ্যামা সঙ্গীতের আসরে এক মাদল বাদকের ব্যক্তিত্বে আকৃষ্ট হই। লম্বা মেদহীন গঠন । সুপুরুষ বলা চলে। খুব প্রাণ দিয়ে মাদল বাজালেন। মনে হলো বাদ্য যন্ত্রের মাধ্যমে যেন মায়ের আরাধনা করছেন। পরে তাঁর আরেক ব্যক্তির সঙ্গে কথপোকথন শুনে জানতে পারি যে উনি অনেক বছর পড়াশোনা শেষ করে বেকার ছিলেন। তখন মায়ের মন্দিরে প্রায় আসা যাওয়া করতেন। ইদানিং বিদেশে কর্মরত হওয়ার দরুন মায়ের দরবারে নিয়মিত হাজিরা দিতে অসমর্থ হলে ও যখনই সুযোগ পান চলে আসেন। শুনে মনে হয়েছিল এই লোকটিকে আরেকটু ভালো ভাবে জানতে পারলে মন্দ হত না। তবে সে সুযোগ আর হয়নি।

দ্বিতীয় জন আমার বাসের সহযাত্রী। প্রতিবেশী ও বটে। মাঝারি গড়ন। একমুখ দাঁড়ি। মধ্যবয়সী। কোনোদিন কথা হয়নি। পাশে বসেও না। ভদ্রলোকের মধ্যে একটা খেলোয়াড় খেলোয়াড় ভাব ছিল। হয়তো আলাপ হলে আরো ভালো ভাবে তাঁকে জানা যেত। হয়তো পরিচিতির ফলে আকর্ষন ও কিছুটা কমত। কিন্তু কোনোদিন তাঁর সঙ্গে কথপোকথন হয়নি এমনকি আবহাওয়া নিয়েও নয়। তারপর একদিন জানতে পারলাম ...যাক সে কথা...

তৃতীয় ঘটনাটি আরো মর্মান্তিক। বেঁটেখাট মানুষটি আমার সঙ্গে কথা বলতে ভীষণ উদগ্রীব। পাতলা শরীর। মাথাটা দেহের অনুপাতে বড়। আলাপ করতে চেয়েছিল। আমি করিনি। "অনেক কথা বলার আছে কিন্তু কী করে বলি বুঝতে পারছি না"। মনে মনে বলি, "তাহলে আর বলে কাজ নেই"। মুখ ঘুরিয়ে রাস্তা পার করি। এর পর আর কোনোদিন কথা বলার চেষ্টা সে করেনি।  কিন্তু একদিন আমার ব্যাগ থেকে টাকা পড়ে যেতে সেটা সসম্ভ্রমে আমাকে তুলে দেন। এখন ভাবি আমার তাঁর প্রতি এত উদাসীনতা হয়তো তাকে মনে কষ্ট দিয়েছে। হয়তো সে একজন নিপাট ভালো মানুষ ছিল। দু একটা কথা বললে কারোরই কোনো ক্ষতি হত না। কিন্তু সে সময় পেরিয়ে গেছে। রেখে গেছে শুধু আফসোস।

এরকম আরো অনেক ঘটনা... বলতে গেলে রাত কাবার হবে। এখন মনে করেও কোনো লাভ নেই। কিন্তু হঠাৎ হঠাৎ মনের দরজায় এরা টোকা যে মারে! তখন ভাবি এই সব বিস্মৃত মানুষরা কেন আসে মনের আঙিনায়? কি চায় তাঁরা? আমি কি চাই? এদের নাম দিতে?  কি নাম দেব? এদের পরিচয় কি? এরা তো সব আগন্তুক। তবে???

Friday, April 11, 2025

আসলে নকল




অনেকদিন পর একটা বাংলা ওয়েব সিরিজ দেখলাম। নারায়ণ সান্যালের সোনার কাঁটা অবলম্বনে । সিরিজটির নাম "কাঁটায় কাঁটায়"। খারাপ লাগলো না তবে...

ওই তবেটাই হলো মুশকিল। একবার পেঁয়াজের খোসা ছাড়াতে বসলে আর শেষ নেই। 

ছোটো করে বলি ।

এডভোকেট পী কে বাসু  সুজাতা মিত্র বলে একটি সুন্দরী মহিলাকে খুনের দায় থেকে বাঁচাতে গিয়ে কেতন দেসাই নামক ব্যবসাদারের পার্টনার কে দোষী সাব্যস্ত করেন। আসামির যাবজ্জীবন কারাদণ্ড হয়। জেলে থাকা কালীন আসামি (নাম ভুলে গেছি) একটি চিঠি লিখে জানান যে তিনি ন্যায়ের সেবা করতে গিয়েই খুনটা করেছেন। অতএব তিনি দোষী নন। যেহেতু কেউ তাকে বিশ্বাস করে না বা করবে না তিনি তাই আত্মহত্যা করাই বেছে নেন । এরপর এই মামলায় যুক্ত সবাই এক এক করে খুন হতে থাকেন। একটি দুর্ঘটনায় পী কে বাসুর কন্যাও মারা যায়। 

এদিকে সুজাতা কৌশিক দার্জিলিংয়ের কাছে একটি রিসর্ট খুলবে ঠিক করে। বলা হয়নি কৌশিক সুজাতার কেসে অভিযুক্ত ছিল। কেতন কে মারার জন্য দুটো গুলি চলে। একটি সুজাতার পিস্তল থেকে আরেকটা আততায়ীর আগ্নেয়াস্ত্র থেকে। কৌশিক ঘটনাস্থলে পৌঁছে সুজাতার হাত থেকে বন্দুকটি নিজের হাতে নিয়ে নেয় যাতে সে দোষী সাব্যস্ত হতে পারে। কিন্ত রাখে হরি মারে কে? কৌশিক আসল খুনী ধরা পড়ায় সসম্মানে ছাড়া পায়। 

তারপর প্রেম আরো গাঢ় হয়। আঁঠা হয়ে বিবাহ বন্ধনে সুজাতা কৌশিক আঁট হয়ে যায়। অতঃপর দার্জিলিং -  যেখানে কেতন দেসাই মামলার সঙ্গে সপক্ষে বিপক্ষে যারাই যুক্ত তাঁরা সবাই আমন্ত্রিত হয় রিসর্টের লাল ফিতে কাটার জন্য। এই আমন্ত্রিতদের মধ্যে খুনী ও শামিল। এরপর একে একে খুন হতে হতে বেঁচে যাওয়া। এবং শেষ মেষ  বাসু বাবুর গোয়েন্দাগিরির সুফল স্বরূপ ঘাতকের ধরা পড়া।

এবার ছাড়াই পেঁয়াজের খোসা ...

সুজাতা কেতন মামলার কথা বলি । সুজাতাকে কেতন নিজের বাংলো তে রাত্রি বেলা ডাকতেই সে কেনো গিয়ে হাজির হলো ?

ভালো মেয়েরা এরকম মাথামোটা কাজ করে ?

আরে নিজের সুরক্ষা তো নিজেকেই ভাবতে হয়। সুজাতা কী ভেবেছিল ? গড়বড় দেখলে গুলি চালিয়ে দেবে। তারপর কৌশিক তো আছেই ?

আচ্ছা তা নয় হলো কিন্তু সুজাতা পিস্তল কোথা থেকে পেলো ? পিস্তলের লাইসেন্স ছিল কি? কৌশিক ওখানে কী করে পৌঁছলো ? ভীষন বেশি কাকতালীয় হয় গেলো নয় কি ?

এবার কোর্ট  সীন।

এডভোকেট বাসু জজ সাহেব কে আততায়ীর গতিবিধি সম্বন্ধে অবগত করাতে গিয়ে বললেন " আমার মনে নয় ..." এই ভাবে আর কি খুনটি হয়েছে। "আমার মনে হয়..."? না হয় উচিত "আমার বিশ্বাস..."? সংলাপটি শুনে কানে খোঁচা লাগলো। আরে এডভোকেট সাহাব কানূন সবুত মাংতা হ্যায় "আমার মনে হয়" নেহি।

আসি দার্জিলিংয়ে।

ইন্সপেক্টর রমেন, যিনি সুজাতার কেসে ইনভেস্টিগেশন অফিসার ছিল, এখন দার্জিলিংয়ের কাঞ্চনজঙ্ঘা হোটেলে, যেখানে বাসু বাবু সস্ত্রীক উঠেছেন, এসে হাজির। মামলার পরবর্তী খুনগুলির ইনভেস্টিগেশন ও তাঁর হাতে। কিন্তু ইতিমধ্যে তিনি কেটি নামক এক নাইট ক্লাব সিঙ্গারের প্রেমে হাবু ডুবু খেয়ে পুলিশি কার্যকলাপ ও গতিবিধির কনফিডেনসিয়াল খবরাখবর নির্দ্বিধায় মেয়েটির সামনে ফোনে আলোচনা করে নিজের জীবনাবসানের পথ নিজেই প্রশস্ত করে ফেলেন। কেটি রমেন কে লাখ টাকার বিনিময়ে খুন করে। একজন দুদে পুলিশ অফিসার কী করে প্রেমে এরকম ভাবে ক্যালাতে পারে ?

রিসর্টে আসি।

প্লটটিকে ঘোরালো করার জন্য নানান হাইলি সাস্পিসিয়াস চরিত্রের সুজাতা কৌশিকের রিসর্টে অবতরণ । একজন ডাক্তার আর তার স্ত্রী যার সুজাতা মিত্র কেসের সঙ্গে কোনো সম্পর্ক নেই। একটি কথায় কথায় ধুমপানরতা দারুন স্টাইলিশ মহিলা এবং একটি আর্টিস্ট ছোকরা । একজন বার্কলে ইউনিভার্সিটির শিক্ষক যার বিনা অনুমতিতে যার তার ফোন ক্লিক করে ছবি তোলার শখ।

ডাক্তারের স্ত্রীর আবার সবরকম মনোবৈজ্ঞানিক রোগ আছে - ক্লেপটোম্যানিয়া ,  ঘুমের ঘোরে চলা মানে সোমনামবুলিসম ইত্যাদি।

তারপরে যা হয়ে থাকে। 

বরফ... ঝড়... ফোনের তার কাটা... যোগাযোগ বন্ধ... এর মধ্যে বাসু বাবুর অনুরোধে দার্জিলিঙ পুলিশের এক অফিসার রিসর্টে এসে হাজির খুনী কে ধরার জন্য... ইয়ে মানে বাসু বাবুকে খুনীকে ধরার্থে হেল্প করার জন্য। তিনি এসেই সবাইকে সন্দেহের চোখে দ্যাখা আর জেরা শুরু করা। জেরার ফাঁদে এমন কি বাসু বাবু পর্যন্ত জড়িত। 
দারুন সিনসিয়ার পুলিশ.. হুঁ হুঁ । 

এর পরে আর স্পয়লার না দিয়ে একটা ছোট্ট হিন্ট দিয়ে পেঁয়াজের খোশা ছাড়ানো বন্ধ করি।  যারা যারা আগাথা কৃষ্টির মাউসট্র্যাপ গল্পটি পড়েছেন তার সঙ্গে কাঁটায় কাঁটায়ের শেষ ক্লাইমেক্সের হুবহু সাদৃশ্য খুঁজে পাবেন। এটা কি কাকতালীয়? অথবা যাকে বলে ইনস্পায়ার্ড? না সম্পূর্ণ ভাবে লিফটেড ?

তবে পুরো সিরিজটা  দ্যেখার পর একটাই কথা মনে হয়। এত জল ঘোলা না করে সোজাসুজি কেতন দেসাইয়ের খুনের মামলায় অভিযুক্ত লোকটি  কাকে চিঠী বা সুইসাইড নোটটা লিখেছিল সেটার খোঁজ করলেই তো খুনী সহজেই ধরা পড়ে যেত । নয় কি ? কেনো চিঠিটি যাকে উদ্দেশ্য করে লেখা হয়েছিল তার পরিচয় শুরুতেই পাওয়া গেলো না বা ধরা পড়ল না সেটা বোধগম্য হলো না তো। 

হ্যাঁ তবে এত সহজেই খুনী ধরা পড়লে গল্পের গরু গাছে উঠতে পারত না তা ঠিক ।









Friday, November 01, 2024

পরিণীতা উইথ এ টুইস্ট

প্রথমতঃ আমি তোমাকে চাই....

না: হলো না।

প্রথমতঃ বাঙালিদের এই পিছনে পানে চেয়ে থাকা কবে যে শেষ হবে কেউ কি তা বলতে পারে ?

এই কিছু বছর অন্তর অন্তর সেই এক  প্রেমের কেচ্ছা !

এবার ওয়েব সিরিজ !

শরৎ বাবু সগ্য থেকে দেখতে দেখতে স্মিত হাসি হাসছেন আর গুনগুনাচ্ছেন, "তুম মুঝে ইয়ুন ভুলা না পাওগে... এ... এ"

হত্যি কি ?

না নিয়তির পরিহাস জানিয়া কপালে করাঘাত করিতেছেন ?

("এ যে দৃশ্য দেখি অন্য... এ যে জঘন্য.. ")

"এ্যাই এ্যাই! হেইডা তো আমি এমনে লিখি নাই! তুই ক্যাডা আমার শেখরের মুখে গান গুজনেওয়ালা ?"

শরৎ বাবুর এই ২০২৪ এর শরৎ কালের নিশার নির্মল আকাশে ভিরমি খাইবার কারণ একটাই - হইচই তে ব্যতিক্রমী পরিণীতা  !!!

শেখর ও ললিতার আফটার ব্রেকআপ রেলওয়ে স্টেশনে দ্যাখা।

তার আগে শেখরের প্ল্যাটফর্মে ধুতির কোঁচা সামলাতে সামলাতে "তুমি সন্ধ্যার মেঘমালা " অত্যন্ত সুরেলা গলায় গাওয়া।

হুঁ হুঁ মোটেও লাগতাসিল না ললিতার জইন্য মন হু হা করতাসে। কার লাইগ্যা গাইতাসিলে গো? 

বিষন্ন প্রেমিক রোমান্টিক গান গাইবে না করুন রসে রসগোল্লার মতন হাবু ডুবু গান গাইবে গা ? 

সো প্রথমতঃ চয়েস অফ সংগ রংগ 

স্টেশন মাস্টার হিন্দুস্থানী। তার আবার খাইয়া দাইয়া কাম নাই শেখরের পিসনে ঘুর ঘুর ঘুর ঘুর। দ্দুত!!!

আবার পাকামী করে শেখর কে জানানা ওয়েটিং রুমের তালা খুলে বসানো।

কি না বর্ষার দিনে কেউ নাকি রেল যাত্রা করবে না। ভদ্রলোক ভুলে গেছেন এখন গ্লোবালাইজেশনের যুগে লোকে সাইক্লোনেও আইসল্যান্ড যাত্রা করে।

গল্পের গরু গাছে ভালো ভাবে চড়ছে.... চড়ুক।

ট্রেন এ্যাজ ইউজুয়াল লেট। কখন আসবে জানা নেই।

শেখর স্টেশনের বাইরে তেলে ভাজা খাচ্ছে। 

স্বদেশী গান শুনছে ।

এমন সময় ললিতার প্রবেশ .... এ্যা ক কে বা রে এ্য ক কা।

তারপর আর কি ? 

বাম্প ইন্টু ইচ আদার...

তার পর অনেক গুলো ফ্ল্যাশ ব্যাক...

যার মধ্যে ললিতার স্বদেশীদের প্রতি সফ্ট কর্নার ,  গিরীন কে ইমপ্রেস করতে অতুলপ্রসাদী গাওয়া, শেখরের সঙ্গে মালা বদল ইনক্লুডেড।

দ্বিতীয়ত: আমি তোমাকে একদম চাই না । 

হু ইজ দিস ললিতা? 

আমি না , হেই প্রশ্নটা লেখক স্বয়ং জিগাইতাসে। হ্যায়ে ও নিজের হিরোইন রে চিনতে পার্তাসে না। 

কি দুঃখ! কি দুঃখ!

এগেইন দ্বিতীয়ত লেখক ইজ হিমসেলফ কনফুজিয়াছেন যে এহেন পরিণীতা তিনি কোন সালে পুঁথিগত করিয়াছিলেন

তবে অদিতি রায় নাম্নী নির্দেশিকা তুরুপের টেক্কা জোর সে টেবিলে মারলেন যখন ক্লাইম্যাক্স এ আমাগো শেখর কনফেসালো যে সে ভীতু বলিয়াই ললিতার সঙ্গে প্রেম ও গান্ধর্ব মতে বিবাহ কে পাপী সমাজের সামনে হৃদয় চীরকে বোল নেহি সেকা।

এই মারাত্মক কনফেসানের পর শরৎ বাবু সত্যিই ভিরমি খাকে মাটি মে গির কে ধড়ফড় কর কে চিল্লানে লাগা , " না ! না! এ হতে পারে না। এ হতে দেব না। আমার মেল চৌভিনিস্ট হিরো গুলার ইগো গুলাকে তছনছ কইরো না । শেখর তুমি স্লোগান ছাড় 

এ লড়াই বাঁচার লড়াই
এ লড়াই জিততে হবে... এ... এ... এ ..."

স্বর্গের সিঁড়ি ভেদ করে ব্যথায় বিধুর এক লেখকের বিদীর্ণ বক্ষ চীর করা কর্ণভেদী আর্তনাদ নির্দেশিকার কর্ণে... নো প্রবেশ করলো নি কো।

এবং এই বিদ্রোহী নোটে মানে অন দিস রেভলিউশনারী নোট পরিণীতার যবনিকা পতন ঘটিল।

তৃতীয়ত ... না: আর গেলাম না

এই রিভিউটির একমদ্বিতীয়ম পজিটিভ আসপেক্ট যে এই হৃদয় বিদারক , সো কল্ড আধুনিক ইন্টারপ্রিটেশন যুক্ত সিরিজ টি বাড়িতে বসে দুপুরে অর্ধ ঘুম ও অর্ধ জাগরিত অবস্থায় ট্যাকের পয়সা খরচ না করিয়া দেখিয়াছি। এবং ইহার জন্য আমার কোনো ক্রেডিট প্রাপ্য নহে কারণ যে নিজেকে দুঃখ দিয়ে আনন্দ পায় তার ভাগ্যে এমন যাতনা অনিবার্য।

প্লীজ এক্সকিউজ মী....




Tuesday, September 17, 2024

মিতিনের সঙ্গে এক সন্ধ্যা




মাত্র সুয্যি মামা অস্ত গেছেন। কলিং বেলের টুং টাং আওয়াজ। ভাবছি এখন কে? 

হর বিলাশ দরজা খুলছে শব্দ পেলাম। কিছুক্ষণের মধ্যেই ঘরে একগাল হাসি নিয়ে আমাদের মিতিনের প্রবেশ। ঘর সন্ধ্যের ছায়ায় ঝিম মেরে ছিল। এবার আলোকিত হলো। 

"আরে! কি ব্যাপার মিতিন যে।" 

মিতিন আমাদের পাড়ার মেয়ে। সেই ছোটবেলা থেকে দেখে আসছি। ভারি চৌকস। যেমন পড়াশোনায় তেমনি খেলাধুলায়। আবার ক্যারাটে চ্যাম্পিয়ন ও। ব্ল্যাক বেল্ট। ওকে সেই ছোট্ট থেকে দেখছি। আমার আদরের মিতিন। এখন আবার গোয়েন্দাগিরিতে নেবেছে । মিতিন যে কিছু ভিন্নধর্মী কাজ করবে আমি আগে থেকেই জানি। তাই আশ্চর্য হইনি। ওযে এক্কেবারে অন্যধরনের মেয়ে।

এক ভাঁড় রসগোল্লা খাবার টেবিলে রাখতে রাখতে মিতিন বললে, " কেসটা সলভ হলো পিসী।"

এটা এখন একটা নৈমিত্তিক ব্যাপার হয়ে গেছে। কোনো কেস সলভ করার পর মিতিনের মিষ্টি নিয়ে আসা। তারপর খুঁটিয়ে খুঁটিয়ে কেস নিয়ে আলোচনা। কি ভাবে ও কেসটা সলভ করলো। কি কি করলে আরো সহজ ও কম সময়ে কেসটা সলভ হতো। এই সব। আমার চাকুরি জীবনের কিছু কিছু অভিজ্ঞতা ওঁর সঙ্গে শেয়ার করি যাতে ওঁর পরবর্তি কেসে কাজে লাগে। 

"বুঝলে পিসী, এবার ছিল এক ব্ল্যাকমেইলের কেস। সুন্দরী মেয়ের বয়স্ক ধনী স্বামী। নতুন বিয়ে হয়েছে। মাত্র কিছু মাস। তারপরেই অজ্ঞাত এক পুরুষের ভর দুপুরে মেয়েটিকে ফোন। তাঁর বিবাহের পূর্বের কেচ্ছা ফাঁস করার হুমকি। টাকা না দিলে চুপ হবে না সে। তারপর সেই মেয়ে মৃত শ্বাশুড়ির গয়না বিক্রি করে টাকা যোগায় ব্ল্যাকমেলারকে । এতে ওকে সাহায্য করে তার পূর্ব প্রেমিক। কিন্তু ব্যাপারটা কেঁচে গেলো যখন সেই প্রেমিক ব্ল্যাকমেইলারের পরিচয় পেলো। প্রেমিকাকে সে কে জানানোর আগেই প্রেমিক খুন। তারপর কেস আমার হাতে। প্রেমিকার স্বামীই আমার দ্বারস্থ হন ভীত স্ত্রীর কাছ থেকে সব জেনে।"

শুনে আমি স্তম্ভিত, "বলো কি? এযে উপন্যাসের ও বাড়া।"

"তবে? বলছি কি?" বলল মিতিন।

এরপরের বিষদ আলোচনা আর লিখছি না। 

সুচিত্রা ভটটাচার্য দেবি মিতিনের এই কেসটাকে পুঁথি গত করেছেন।

পড়ে দেখুন "পালাবার পথ নেই"।

রূপই কি মেয়েদের সব চেয়ে দামী অলঙ্কার ? 

না সুশিক্ষা?

কুকর্মের ফল কি এই জীবনেই পাওয়া যায় ?

সব হিসাব কি এই জন্মেই শোধ হয় ?

আর লিখছি না।

বাকিটা সুচিত্রা দেবির কাহিনীতে প্রকাশ্যমান ।



 

Saturday, August 24, 2024

শিকড়

এদেশীয়দের "আমরা পূর্ব বঙ্গের" বললেই মুখের ভাব বদলে যায়। হয়তো বাড়ির কাজের মাসি বা ঝুগ্গি ঝোপড়িতে থাকা কুলাঙ্গার গুলির কথা মনে পড়ে যায়। এদেশীয়দের পূর্ব বঙ্গীয়দের সম্বন্ধে এত টুকুই জ্ঞ্যান বা  পরিচিতি।

দু:খের বিষয়। কিন্তু এই নিয়ে কোনো জাতিকে অবমাননা করবো না। কারণ আমরা সবাই  কুপমণ্ডুক। নিজেদের সামাজিক গন্ডির বাইরে কত টুকুই বা জানি বা খোঁজ রাখি ? 

বলাই বাহুল্য বেশি কিছু বলেও লাভ নেই। বললেও কি বলব? আমাদের সিদ্ধেশ্বরী মন্দিরের পাশে বিরাট বসত বাড়ি ছিল? শান্ত পুকুর ঘিরে অনেক খানি জমির উপর বাগান -  ছায়া ভরা গাছগুলির  প্রতিচ্ছবি পুকুরের জলে স্থির হয়ে থাকতো? আর সেই যে বাগানের গেটের উপর কামিনী ফুলের চাঁদোয়া? ফুল ঝরে পড়ত গেটের বাইরে রোয়াকে। 

কত লোক যাতায়াতের পথে সেই রোয়াকে বসে জিরিয়ে নিত। তাঁদেরই মতন আর এসে বসত একটি মেয়ে। সদ্য বিবাহিতা। স্বামী ও শ্বাশুড়ির হাতে নির্যাতিতা। প্রায়ই দ্যাখা যেতো তাঁকে এলো চুলে মন্দিরের পিছনে নদী পারের ঘাটলায় উদাস নেত্রে বসে থাকতে। তখনও সে বিশ্ববন্দনীয়া হননি। 

একদিন তিনি এসে বসেছেন আমাদের বাড়ির  রোয়াকে। দাদু বাগানে পায়চারি করতে করতে লাল পেড়ে সাদা শাড়ি পড়া অল্পবয়সী মেয়েটিকে দেখে বললেন, "বাইরে কেন মা? ভিতরে এসে বসো।" মেয়েটি মাথা নোয়ালেন। না তিনি ভিতরে আসবেন না। ততক্ষণে দিদিমা বাইরে এসে পড়েছেন। বললেন , " লজ্জা কিসের মা? তুমি তো আমার মেয়ের মতন।" মেয়েটি নত শীরে উত্তর দিলেন, " মা, আমি ঘরে পা দেব না। তবে আপনি আমায় মেয়ে বলে ডেকেছেন, আজ থেকে আপনাদের মা আর  বাবা বলেই জানবো।" 

সেদিন থেকে ওই পাতানো কন্যাটির সঙ্গে এ বাড়ির রক্তের চেয়েও প্রগাঢ় সম্পর্ক গড়ে ওঠে। আমার এক মাসির সঙ্গে ছিল তার সহদরার মতন ভাব। 

এরপর অনেক বছর কেটে গেছে । সাধনার অনেক উচ্চ স্থানে পৌঁছে ও রাজনৈতিক পরিপৃষ্ঠতা পেয়েও তিনি বৈরাগীই রয়ে গেছিলেন। দিল্লীতে শতেক শিষ্য গণ দ্বারা পরিবেষ্টিত হয়ে কখনো এসেছেন। আমার মা ছুটে গেছেন তাঁকে দেখতে। হাজার খানেক লোকের লাইন অবজ্ঞা করে শুধু মাত্র বলে পাঠিয়েছেন : " রাজশাহী থেকে রাজমোহন বাবুর ছোট মেয়ে এসেছেন দ্যাখা করতে।" অমনি ডাক পড়েছে । 

শিশু সুলভ আনন্দে ভরে উঠেছেন। পরিবারের প্রত্যেকের নাম নিয়ে খুঁটিয়ে খুঁটিয়ে খবরাখবর নিয়েছেন। মার হাতে তুলে দিয়েছেন আশির্বাদ স্বরূপ কখনো কিছু কখনো কিছু।

খুব ইচ্ছে ছিল সেই মন্দির দ্যাখার। সেই পুকুর পাড়। সেই বসত বাড়ি। সেই কামিনী গাছের ছায়ায় মোড়া রোয়াক খানি। হয়তো বিধ্বংসী বন্থিশিখা জ্বলার আগেই ছারখার হয়ে গেছে সেই সব স্মৃতিচিহ্নগুলি ।

হয়তো সেই বাড়ি আর নেই। নেই সেই পুকুর। কামিনী গাছের ছায়া ঘেরা রোয়াক । কিন্তু মন্দির?  মন্দির তো ছিল নাম করা। অনেক ভক্তগণের আরাধ্যা দেবীর ঝলমলে আসন। 

ভগবান কে কি হত্যা করা যায় ?  

জ্বালিয়ে নাশ করা যায় ? 

ইতিহাসের মতন মুছে ফেলা যায় ? 

নতুন ইতিহাস গড়ার আগে কি সেই অবিনশ্বরকে একবার ডাক দেবে না সময়?

" হে পরমেশ্বর চেয়ে দ্যাখো তোমার স্মৃতি সৌধ মুছে ফেলে নতুন ধর্মের আবাহন করছি আমরা অমৃতস্য পুত্রা:।"

"আশির্বাদ কর আমরা যাতে সফলকাম হই!"





Tuesday, July 23, 2024

হঠাৎ ..... কাল্পনিক!!



গতকাল সন্ধ্যাবেলায় সুচিত্রা ভট্টাচার্যের একটি উপন্যাস পড়তে পড়তে তন্দ্রা মতন এসে গেছিল। 

হঠাৎ মোবাইলটা বেজে ওঠাতে জেগে গেলাম। 

অচেনা নম্বর। 

কলটা রিফ্লেক্স একশনের মতন রিসিভ করতেই অপর প্রান্তে এক আগন্তুকের স্বর। প্রথমে বুঝতে পারিনি। কথাগুলো জড়ানো জড়ানো। আমি প্রশ্নসূচক উত্তর দেওয়াতে সেই অজানা ব্যক্তি এবার স্পষ্ট ইংরেজিতে জিজ্ঞেস করলো :

"আর ইউ ইন ইন্টেলিজেন্স বিউরো?"

ভদ্রলোকের কথায় বেশ টান আছে। হয় বাঙালি নয় মাদ্রাজী। মাদ্রাজী মানে তেলুগু, তামিল, কন্নড়, মালিয়ালী  - যা কিছু।

আমি না করাতে অপর প্রান্তের ফোনকারী জোর দিয়ে বলল: 

"আই অ্যাম কনফার্মড দ্যাট ইউ ওয়র্ক ফর ইন্টেলিজেন্স বিউরো।"

আমিও ততোধিক জোর দিয়ে বললাম:

"ওয়াট ডু ইউ ওয়ান্ট?"

জোরটা হয়তো বেশি হয়ে গেছিল। 

আমার প্রশ্নের উত্তরে টক করে লাইনটা কেটে গেলো।

বুকটা ছাৎ করে উঠলো। 

এই অপরিচিত লোকটা কেমন করে জানলো আমার গুপ্ত ইচ্ছার কথা ? 

আমি যে এককালে সী বী আই, সতর্কতা বিভাগ বা এমনি কোনো একটি অনুসন্ধানমূলক দপ্তরে কাজ করতে উদগ্রীব ছিলাম ?

আর স্পাই হওয়া মানে তো একটা দারুন রোমহর্ষক ব্যাপার - নয় কি?

কিন্তু সেই চাকুরিটি হতে হতে হলোনা। 

যিনি আমাকে অফার করেছিলেন তাঁকে অতীব উৎসাহের সঙ্গে উত্তরে বলেছিলাম, "হ্যাঁ স্যার, একবার সুযোগ দিন । সব কটাকে দেখে নেবো।"

ভদ্রলোক মৃদু হেঁসেছিলেন মাত্র। 

তারপর থোর বড়ি খাঁড়া আর খাঁড়া বড়ি থোর। 

যে তিমিরে সেই তিমিরেই রয়ে গেলাম।

ফোনটা বন্ধ করে অনেক ভাবলাম।

কে এই ভদ্রলোক যার আমার ইন্টেলিজেন্স বিউরোতে কাজ করা নিয়ে এত চিন্তা?

আমাকে না হয় ভুল করে ফোন করেছিল কিন্তু সত্যি যার চাকুরি নিয়ে এত দুশ্চিন্তা সে কে?

আর কেনই বা এত দুশ্চিন্তা ?

এই একটি কিছুক্ষণের ফোনচারিতায় আমার হৃদয়ের শুপ্ত বাসনাগুলো আবার  পট পট করে জেগে উঠল।

ভদ্রলোক কোথায় আঘাত করেছেন জানেন কি?

আবার ফোন।

এবার চেনা কন্ঠ স্বর।

আমার স্কুলের বান্ধবী।

ওকে কিছুক্ষণ আগের ফোনের কথাটা বলাতেই কিছু সাবধান বাণী কর্ণপটে গলগল করে পড়ল :

"আজকাল বহুত ফ্রড কল হচ্ছে। তুই জানিস?"

কিছু দুর্ঘটনার বিবরণ....

তারপর

"কোনো আননোন নাম্বার তুলবিই না।" 

গেলো।

দ্বিতীয়বার কাল্পনিক বা কিয়ৎক্ষণের জন্যই হোক আমার জীবনের সবচেয়ে আকর্ষণীয়, সবচেয়ে লোভনীয় চাকুরিটা ফেল্টু মেরে গেলো।

অনেকদিন পর বুড়ো বয়সে হাত পা ছুঁড়ে ভেউ ভেউ করে কাঁদতে ইচ্ছে করলো।

দূরে কোথাও এফএমে বেজে উঠল :

"পাগলা ...আ...আ ...মনটারে তুই বাঁধ... ধ....ধ...., কেন রে তুই ...ই ...ই ... যেথা সেথা পড়িস প্রাণের ফাঁদ ...দ ...দ ...দ "

খুউব দরদে গলা।

পারলাম না।

ফুঁপিয়ে ফুঁপিয়ে ডুকরে ডুকরে কেঁদে ফেললাম।

এখন মনটা হালকা লাগছে।

ভাবছি ভদ্রলোককে পাল্টা ফোন করি ।

"ইয়েস আই ওয়ার্ক ইন ইন্টেলিজেন্স বিউরো। ওয়াট ইজ ইওর প্রবলেম ? মে আই নো?"

আমার কল লগে ওই নাম্বারটা এখনো আছে।

ডিলিট করিনি।

একবার ট্রাই করবো নাকি?

কি বলেন?